धीमी ज़िंदगी
ज़िंदगी शायद अब कुछ ज़्यादा तेज़ दौड़ती है
कहीं पीछे ना रह जाए ये फ़िक्र कचोटती है
फ़ेस्बुक पे तो हज़ारों दोस्तों से जुड़े है
एक ही कमरे में रिश्ते बिखरे पड़े है
जो हँसी खुले बरामदे में आती थी
वो इंस्टाग्रेम वाली सेल्फ़ी में नहीं आती
जो ख़ुशी दोस्तों की शरारतो में आती थी
फ़ेस्बुक वाले दोस्तों में वो बात नहीं आती
लोग अब टिक टोक से बातें कर लेते है
ग़ुस्सा अनफ़्रेंड करके ज़ाहिर कर लेते है
मोर्चे भी अब ट्विटर पे निकलते है
रिश्ते भी अब इंटर्नेट पे मिलते है
एक अजीब उधेड़ बुन में चले जा रहे है
बेजान मुर्दे है जो बस जिए जा रहे है |
अक्सर पुराने दिन याद आते है, जब
वक़्त से धीमी चलती थी ज़िंदगी
पेड़ की छांव में मिलती थी ज़िंदगी
एक छत के नीचे कई रिश्ते पलते थे
रिश्ते भी ऐसे जो उम्र भर साथ चलते थे
मोहल्ले के सब घर अपने से लगते थे
सावन आते ही पेड़ों में झूले पड़ते थे
गर्मी में शाम को जब छत धुलते थे
मिट्टी सौंधी सी ख़ुशबू ले आती थी
माँ चूल्हे की रोटी हाथों से खिलाती थी
तारों की छांव में दादी माँ कहानी सुनाती थी
टूटी चारपाई पे भी चैन की नींद आती थी
दादाजी सुबह जलेबी ले आते थे
पिताजी शाम को दूध दुहाते थे
ठंड में अंगीठी मे हाथ तापते थे
साइकिल के पहिए से दुनिया नापते थे
एक मुट्ठी में कंचे, दूजे में पतंग की डोर थी
पाँव थे ज़मीन पे, नज़र आसमान की ओर थी
शायद वो ज़िंदगी ही कुछ और थी |
~ मुसाफ़िर

बहुत खूब लिखा है। दिल छू गया एक एक शब्द। पुराने दिनों में चल दिया था मन पढ़ते पढ़ते।
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