मैं एक ख्वाब बुनता हूँ















तुझे बिन बताये तेरे संग साये सा चलता हूँ
यूँ तो दिल अपना सूफी है अलबत्ता 
पर तेरी ज़ुबान से जब अपना ज़िक्र सुनता हूँ
तब मैं एक ख्वाब बुनता हूँ ।

समेट रखी है यादें 
तेरी एक वीरान आशियाने में
बना रखे है इसमें गलियारे कई
जब यादों के गलियारों से दबे पांव गुज़रता हूँ
तब मैं एक ख्वाब बुनता हूँ ।

खो देना तुझे इस भीड़ में मजबूरी थी मेरी
तलकियों से लड़ना कहाँ आसान था
जब आस लगाए तुझे उसी भीड़ में ढूंढता हूँ
तब मैं एक ख्वाब बुनता हूँ ।

तेरे संग बिताए लम्हो की पूँजी है ज़िन्दगी
खर्च न हो जाये कहीं डरता हूँ
इन लम्हो को 
जब एक धागे में पिरोता हूँ
तब मैं एक ख्वाब बुनता हूँ ।

जब भीगता है तेरा तकिया मेरी यादों से
मेरी बातों से, मेरे वादों से
चुपके से सिरहाने बैठ तेरे आंसू चुनता हूँ
तब मैं एक ख्वाब बुनता हूँ। ।


~ मुसाफ़िर



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