पिंजरा












कुछ धुँधली यादें है सदियों पुरानी 
मस्त उड़ता था मैं खुले गगन में 
संग कुछ भूले बिसरे साथी थे 
उतर आया भूतल पे फिर 
कुछ क़र्ज़ चुकाने बाक़ी थे । 

होश आते ही ख़ूब रोना आया 
ये पिंजरा मुझको रास ना आया 
बाग़बानो ने सम्भाला मुझे 
सभ्यता के खाँचे में ढाला मुझे 
प्रतिद्वंद के माप दंड सिखाए 
क्रय विक्रय के पैंतरे दिखाए 
बनाया मुझे एक इंसान 
कैसे भूलूँ उनका एहसान 
सरपट सरपट भागने लगा 
बस भूल गया अपनी उड़ान । 

ये पिंजरा मेरा अस्तित्व बन गया 
भूल उस विराट गगन को, मैं 
एक बालिस्त की दुनिया में रम गया । 
इतनी बड़ी थी ये दुनिया मेरी कि 
एक जीवन में नही सिमटती थी 
इतनी चका चौंध थी यहाँ पर 
इससे नज़र कहाँ हटती थी 
भटकता रहा इन्ही गलियों में 
इनके परे कभी जा ना सका 
तिनके सा था अस्तित्व था मेरा 
परमसत्य इसमें समा ना सका । 

परमात्मा की हथेली पे 
ये ब्रह्माण्ड गोल घूमता है 
इसके सूक्षतम भाग में 
एक नीला बिंदु मिलता है 
ये बिंदु है धरती अपनी 
इस बिंदु के एक कण में 
मेरा शहर मिलता है 
बिलबिला रहा है लाशों से ये 
इन असंख्य लाशों में 
एक मेरा शरीर मिलता है । 

ना जाने क्यूँ अहम करता रहा 
बस यूँ ही भूल करता रहा 
एक आइने में अक्स था मेरा 
उस आइने को दुनिया, 
और ख़ुद को अक्स समझता रहा । 

मद में चूर था, जवानी का ग़ुरूर था 
कुछ रफ़्तार का अहम था 
कुछ बाज़ुओं में भी दम था 
पतझड़ आते आते सारे पत्ते झड़ गए 
पिंजरे के कड़े भी कमज़ोर पड़ गए । 

अब चकाचौंध धूमिल पड़ी है 
आँखों की रोशनी मंद पड़ी है 
संगीत भी अब शोर लगता है 
सुनने में थोड़ा ज़ोर लगता है 
जो अपनी रफ़्तार पे इतराते थे 
आज चलने से भी कतराते है 
अब सुबह शाम बोझ लगती है 
दुनियादारी फीकी लगती है । 

अब भाग नही सकता, बस उड़ना चाहता हूँ 
रिश्ते ख़ूब निभा लिए, अब खुदा से जुड़ना चाहता हूँ 
सारे क़र्ज़ चुका कर, मुक्त होना चाहता हूँ 
स्वर्ग नर्क का मोह नही, शून्य में खोना चाहता हूँ । 

ये पिंजरा मेरा, 
बचपन में अजीब था, जवानी में अज़ीज़ था 
बुढ़ापे में बोझ था, सच पूछो तो बस एक सोच था 
एक माटी का धेला था, जो उम्र भर धकेला था 
अब माटी में हीं मिल चला, मेरी रूह का पंछी उड़ चला । 

अब उड़ता हूँ विराट गगन में 
मस्त हूँ अपनी मग्न में 
एक दिव्य प्रकाश दिखायी देता है 
एक मधुर संगीत सुनायी देता है 
स्वागत में आए है यार पुराने 
याद आए है अब गुज़रे ज़माने 
हर दफे उड़ता हूँ फिर गिरता हूँ 
फिर गिर के उड़ता हूँ 
बस यूँ ही रेला चलता है 
सदियों से ये खेला चलता है 
अब युगों युगों यूँ ही उडूँगा 
भूतल पे ना वापस गिरूँगा । 

हाय ये कैसा दुर्भाग्य मेरा 
कर्मों का थैला साथ ले आया 
अपने पुण्य पाप क्यूँ छोड़ ना आया 
अब फिर धरातल पे जाना पड़ेगा 
फिर नया पिंजरा तलाशना पड़ेगा 
पर अबकि नए बीज ना बोऊँगा 
बस पुरानी फ़सल काटूँगा 
चकाचौंध के मेले में ना खोऊँगा 
फिर एक आख़िरी उड़ान भरूँगा 
उस दिव्य प्रकाश की ओर 
एक नए देस की तलाश में 
एक नए खुदा की ओर । 

~ मुसाफ़िर

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